(1908-1974) मुंगेर के सिमरिया ग्राम में एक किसान परिवार में जन्म। बचपन से ही कठोर जीवन-संग्राम से गुजरने के कारण उनके व्यक्तित्व का जुझारूपन अन्त तक बना रहा और वहीं उनकी रचनाओं में भी अभिव्यक्त हुआ। अपनी रचनाएँ ‘रेणुका’, ‘हुंकार’ के बाद वे काव्य-जगत में छाते ही चले गये। विद्रोही कवि के रूप में ही नहीं, ‘उर्वशी’ जैसे महाकाव्य के सजेता के रूप में भी। उन्होंने 60 से अधिक कृतियाँ का सृजन किया है। ‘संस्कृति के चार अध्याय’ उनकी महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। अपनी ओजस्विता एवं भावात्मक प्रकृति के कारण उनके काव्य को दहकते अंगारों पर इन्द्रधनुषों की क्रीड़ा से ठीक ही उपमित किया गया।