Udana Janta Hoon

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Udana Janta Hoon

Number of Pages : 80
Published In : 2021
Available In : Hardbound
ISBN : 9788194928713
Author: Dr. Sanjeev Dixit 'Bekal'

Overview

डॉ. संजीव दीक्षित 'बेकल’ सहज, सरल और प्रभावी कवि ही नहीं एक बेहतरीन इंसान भी हैं। पिछले साल उनका एक कविता और गज़ल संग्रह 'धूप को निचोड़ कर’ प्रकाशित हुआ था। डॉ. दीक्षित का यह नया काव्य संग्रह उस संग्रह की कविताओं और गज़लों से कई मायनों में आगे की यात्रा है। डॉ. संजीव दीक्षित 'बेकल’ ने इस संग्रह में अनेक गज़लें संग्रहित की हैं, जिन्हें मैं गीतिका की श्रेणी में रखना चाहूंगा; यानि ये हिंदी मिज़ाज की गज़लें हैं। उर्दू के गज़ल विन्यास से इतर संजीव दीक्षित हिंदी की गीत परंपरा के अनुसार ही $गज़लें लिखने का प्रयास करते हैं और कई बहुत ख़ूबसूरत अश’आर उनकी गीतिकाओं में से निकल कर आए हैं। इनमें रोज़मर्रा जि़न्दगी से जुड़े उनके अनुभव पगे विचार सामने आते हैं। इसकी कुछ बानगी मैं आपके सामने रख रहा हूँ। अब इस शे’र में उन्होंने अपने अलग ही तेवर के साथ, बिल्कुल नए अंदाज़ में अपनी बात को हमारे सामने रखा है; इस अनूठे कहन का और इसकी गहराई का प्रभाव देखे—रहा उसके साथ तमाम उम्र मैं /वो कहता है कि मैं मिला ही नहीं कई बार संजीव बहुत ही सुंदर दृश्य बिंबों का निर्माण करते हैं; और उनमें अपनी बात को भी बड़ी शिद््दत के साथ रखते हैं— ख्वाब हकीकत बन जाएंगे / खोलो तो पलकों की बाहें संजीव अपनी अभिव्यक्ति में बार-बार संघर्ष का भी जि़क्र करते हैं। यकीनन उनका जीवन संघर्ष से गुज़रा है और उन्होंने अपने इस अनुभव को बखूबी अपने भावों में भी ढाला है— कभी गिरा-उठा-चला और फिर दौडऩे लगा / जि़न्दगी तेरे साथ जो चला वो स$फर मैं ही हूं रचनाकार को हमेशा जि़न्दगी की सार्थकता की तलाश रहती है। वो केवल सफल ही नहीं अपितु सार्थक भी होना चाहता है। इसी सार्थकता की तलाश उनके इस शे’र में नज़र आती है— ए खुदा मेरी जि़न्दगी को कोई मायना दे रूह को / देख सकूं ऐसा कोई आईना दे डॉ. संजीव दीक्षित 'बेकल’ को मैं उनकी इन अनुभव पगी रचनाओं के लिए हार्दिक बधाई देता हूं। —नरेश शांडिल्य "

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डॉ. संजीव दीक्षित 'बेकल’ सहज, सरल और प्रभावी कवि ही नहीं एक बेहतरीन इंसान भी हैं। पिछले साल उनका एक कविता और गज़ल संग्रह 'धूप को निचोड़ कर’ प्रकाशित हुआ था। डॉ. दीक्षित का यह नया काव्य संग्रह उस संग्रह की कविताओं और गज़लों से कई मायनों में आगे की यात्रा है। डॉ. संजीव दीक्षित 'बेकल’ ने इस संग्रह में अनेक गज़लें संग्रहित की हैं, जिन्हें मैं गीतिका की श्रेणी में रखना चाहूंगा; यानि ये हिंदी मिज़ाज की गज़लें हैं। उर्दू के गज़ल विन्यास से इतर संजीव दीक्षित हिंदी की गीत परंपरा के अनुसार ही $गज़लें लिखने का प्रयास करते हैं और कई बहुत ख़ूबसूरत अश’आर उनकी गीतिकाओं में से निकल कर आए हैं। इनमें रोज़मर्रा जि़न्दगी से जुड़े उनके अनुभव पगे विचार सामने आते हैं। इसकी कुछ बानगी मैं आपके सामने रख रहा हूँ। अब इस शे’र में उन्होंने अपने अलग ही तेवर के साथ, बिल्कुल नए अंदाज़ में अपनी बात को हमारे सामने रखा है; इस अनूठे कहन का और इसकी गहराई का प्रभाव देखे—रहा उसके साथ तमाम उम्र मैं /वो कहता है कि मैं मिला ही नहीं कई बार संजीव बहुत ही सुंदर दृश्य बिंबों का निर्माण करते हैं; और उनमें अपनी बात को भी बड़ी शिद््दत के साथ रखते हैं— ख्वाब हकीकत बन जाएंगे / खोलो तो पलकों की बाहें संजीव अपनी अभिव्यक्ति में बार-बार संघर्ष का भी जि़क्र करते हैं। यकीनन उनका जीवन संघर्ष से गुज़रा है और उन्होंने अपने इस अनुभव को बखूबी अपने भावों में भी ढाला है— कभी गिरा-उठा-चला और फिर दौडऩे लगा / जि़न्दगी तेरे साथ जो चला वो स$फर मैं ही हूं रचनाकार को हमेशा जि़न्दगी की सार्थकता की तलाश रहती है। वो केवल सफल ही नहीं अपितु सार्थक भी होना चाहता है। इसी सार्थकता की तलाश उनके इस शे’र में नज़र आती है— ए खुदा मेरी जि़न्दगी को कोई मायना दे रूह को / देख सकूं ऐसा कोई आईना दे डॉ. संजीव दीक्षित 'बेकल’ को मैं उनकी इन अनुभव पगी रचनाओं के लिए हार्दिक बधाई देता हूं। —नरेश शांडिल्य "
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