Mahaaranya Mein Giddha

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Mahaaranya Mein Giddha

Number of Pages : 384
Published In : 2015
Available In : Hardbound
ISBN : 978-93-263-5288-8
Author: Rakesh Kumar Singh

Overview

प्रस्तुत उपन्यास महुए की गन्ध से महमहाते और मान्दल की थाप से तरंगायित होते झारखंड के महाअरण्य में नर-गिद्धों से संघर्षरत एक भूमिगत संगठन के 'एरिया कमांडर’ ददुआ मानकी के संघर्ष, अमर्ष और अन्तत: नेतृत्व से मोहभंग की कथा है। झारखंड को मात्र एक राजनैतिक-भौगोलिक स्वतन्त्रता की समस्या मानकर पृथक् राज्य के सरलीकृत एवं तथाकथित अन्तिम समाधान के विरुद्ध खड़ा है बनैली अस्मिता का प्रतीक पुरुष ददुआ मानकी। भूमि पर उगा हरा सोना और झारखंड की भूमि के रत्नगर्भ से आर्किषत होते रहे हैं कुषाण, गुप्त, वद्र्धन, मौर्य, पाल प्रतिहार, खारवेल, राष्ट्रकूट, मुगल, तुर्क, पठान और अँग्रेज...। अब अरण्य का रक्त-मांस निचोड़ रहे हैं देसी पहाड़चोर, वन तस्कर, श्रम दस्यु और नारी देह के आखेटक! शिकार की मज्जा तक चूस कर, अस्थिङ्क्षपजर शेष तक को बेचकर लाभ लूटने में जुटे हैं ये नरगिद्ध! इन्हीं गिद्धों से संघर्षरत है अधेड़ ददुआ मानकी! झारखंड आन्दोलन और इसकी निष्पत्ति—बिहार विभाजन-की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत यह उपन्यास तिलस्मी अँधेरे में डूबे झारखंड के मायावी महाअरण्य में शोषणतन्त्र के कुचक्र का यथार्थपरक चित्रण मात्र नहीं है वरन् अरण्य को उसकी मनोहारिता, भयावहता तथा बिहार विभाजन के निहितार्थों के साथ साहित्य सुलगते सवाल की भाँति दजऱ् कराने के दस्तावेज़ी प्रयास है।

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प्रस्तुत उपन्यास महुए की गन्ध से महमहाते और मान्दल की थाप से तरंगायित होते झारखंड के महाअरण्य में नर-गिद्धों से संघर्षरत एक भूमिगत संगठन के 'एरिया कमांडर’ ददुआ मानकी के संघर्ष, अमर्ष और अन्तत: नेतृत्व से मोहभंग की कथा है। झारखंड को मात्र एक राजनैतिक-भौगोलिक स्वतन्त्रता की समस्या मानकर पृथक् राज्य के सरलीकृत एवं तथाकथित अन्तिम समाधान के विरुद्ध खड़ा है बनैली अस्मिता का प्रतीक पुरुष ददुआ मानकी। भूमि पर उगा हरा सोना और झारखंड की भूमि के रत्नगर्भ से आर्किषत होते रहे हैं कुषाण, गुप्त, वद्र्धन, मौर्य, पाल प्रतिहार, खारवेल, राष्ट्रकूट, मुगल, तुर्क, पठान और अँग्रेज...। अब अरण्य का रक्त-मांस निचोड़ रहे हैं देसी पहाड़चोर, वन तस्कर, श्रम दस्यु और नारी देह के आखेटक! शिकार की मज्जा तक चूस कर, अस्थिङ्क्षपजर शेष तक को बेचकर लाभ लूटने में जुटे हैं ये नरगिद्ध! इन्हीं गिद्धों से संघर्षरत है अधेड़ ददुआ मानकी! झारखंड आन्दोलन और इसकी निष्पत्ति—बिहार विभाजन-की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत यह उपन्यास तिलस्मी अँधेरे में डूबे झारखंड के मायावी महाअरण्य में शोषणतन्त्र के कुचक्र का यथार्थपरक चित्रण मात्र नहीं है वरन् अरण्य को उसकी मनोहारिता, भयावहता तथा बिहार विभाजन के निहितार्थों के साथ साहित्य सुलगते सवाल की भाँति दजऱ् कराने के दस्तावेज़ी प्रयास है।
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